कारण शरीर का उत्कर्ष भक्तियोग से | गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उपलब्धियां | वांग्मय No 13 पृष्ठ ३.४३
Karan Sharir Ka Utkarsh Bhakti Yog Se | Gayatri Ki Panchkoshi Sadhana Evam Uplabdhya | Vangmay No 13 Page 3.43
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'प्रेम' वह केन्द्र बिन्दु है जिसके इर्द गिर्द अनेकों आध्यात्मिक सद्गुण विद्यमान रहते हैं। फूल खिलता है तो उस पर अनेक भौंरे, तितली, मधुमक्खी घुमडती दिखाई पड़ती हैं। 'प्रेम' तत्व जिसके अन्तःकरण में उगेगा उसमें सौजन्य, सहृदयता, दया, करुणा, सेवा, उदारता क्षमा आत्मीयता आदि अनेकों सत्प्रवृत्तिया अनायास ही दृष्टिगोचर होंगी। प्रेम पात्र के प्रति अपार सहानुभूति होती है। उसे अधिक सुखी और समुन्नत बनाने के लिए अन्तःकरण में निरन्तर हिलोरें उठती रहती हैं। जो अपने पास है उसे प्रेमी पर उत्सर्ग करने की अभिलाषा रहती है। इस प्रकार आकांक्षा, अभिलाषा के होने पर स्वभावतः प्रिय पात्र के प्रति अधिक सज्जनता का व्यवहार बन पड़ता है और प्रेम किसी व्यक्ति विशेष तक सीमित न रह कर यदि विश्व मानव के प्रति जनता जनार्दन के प्रति व्यापक हो गया हो तो ऐसा व्यक्ति सन्त, ऋषि, सज्जन, देव से कम कुछ हो ही नहीं सकता। मानवोचित देवोपम समस्त सद्गुण उसमें सुविकसित पाए जाएगें। जिसमें ऐसी महानता हो उसे इस धरती पर ईश्वर का प्रतीक प्रतिनिधि ही कहा जाएगा।
मन की एकाग्रता प्रेम भावना की मात्रा पर ही निर्भर है। मन प्रेम का गुलाम है। जिस वस्तुओं से हमें प्रेम होता है उन्हीं में मन रमा रहता है। ध्यान उन्हीं का रहता है और सुख उन्हीं के चिन्तन में मिलता है। अक्सर भजन में चित्त न लगने की मन के अन्यत्र भाग जाने की शिकायत की जाती रहती है। इसका कारण एक ही है सांसारिक पदार्थ से वास्तविक प्रेम और ईश्वर से औपचारिक बाँध-बधाव। जिससे वास्तविक प्रेम हो मन उसी में रमेगा। जो पदार्थ, प्राणी अथवा दृश्य प्रिय लगते हैं उन्हीं में भ्रमण करने के लिए मन भाग जाता है। न तो हम ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को जानते हैं और न उसके प्रति प्रेम भावना आत्मीयता जैसी कोई वस्तु अपने पास है। ज्यों त्यों करके पूजा की लकीर पिटती रहती है। ऐसी दशा में मन लगने की आशा भी कैसे की जा सकती है ? और मन न लगने पर उपासना का उच्च स्तरीय प्रतिफल कहाँ ? उच्च-स्तरीय उपासना में प्रेम भावना का समावेश अनिवार्य रूप से आवश्यक है। परिजनों को इसके लिए बहुत समय से प्रेरणा दी जाती रहती है। गायत्री माता की गोद में उसके अवोध शिशु की तरह क्रीड़ा करने, पय पान करने का आन इन प्रयोजनों की पूर्ति के लिए बहुत ही उपयुक्त है। रुचि भिन्नता से जिनको वह ध्यान ठीक तरह न जम पाता हो उनके लिए दो ध्यान और भी हैं जो साधक के अन्तःकरण में तत्काल पुलकन उत्पन्न करते हैं।
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वन्दे- वेद मातरम्।
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